मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा
क्रन्दन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झारिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना
पथ-चिह्न न दे जाता जाना;
सुधि मेरे आगन की जग में
सुख की सिहरन हो अन्त खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
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इस कविता में महादेवी वर्मा ने अपने समय में भारतीय नारी की व्यथा को दर्शाया है। उसे पग पग पर मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। लड़की के पैदा होते ही परिवार दुखित हो जाता है।बाल-विवाह , दहेज , शिक्षा में भेद भाव , ससुराल में प्रताड़ना आदि कुरीतियों से उसका जीवन कष्ट पर्द हो जाता है और तमाम परेशानियों का दौर जीवन भर चलता रहता है। उन्होंने इसको बहुत गंभीरता और रसात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।
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आप जीवन में सफ़ल हों।
सस्नेह आपका
#Bhandari.D.S.